करवा चौथ और इसकी धार्मिक कथा | निराले रंग | करवा चौथ विशेष कथा-कहानी

 करवा चौथ और कथा 

करवा चौथ विशेष कथा-कहानी

करवा चौथ का व्रत कार्तिक कृष्ण पक्ष की चन्द्रोदयी व्यापिनी चतुर्थी को किया जाता है। यह सौभाग्यवती स्त्रियों का प्रमुख व्रत है। सौभाग्यवती स्त्रियां अपने सुहाग की रक्षा एवं कल्याणार्थ यह व्रत करती हैं।



कथा-  पौराणिक कथाओं के अनुसार एक साहूकार था। उसके सात बेटे और एक बेटी रत्नावती थी। सभी बेटों एवं बेटी का विवाह हो चुका था। विवाह के पश्चात् रत्नावती पीहर में आई हुई थी। सेठानी सहित उसकी बहुओं और बेटी रत्नावती ने करवा चौथ का व्रत रखा हुआ था। रात्रि को साहूकार के बेटे जब अपने काम-धंधे से वापस लौटकर घर आए और भोजन करने लगे, तो उन्होंने अपनी बहन रत्नावती को भी भोजन करने के लिए बुलाया। इस पर बहन ने उत्तर दिया- 'भाई आज मैंने करवा चौथ का व्रत रखा है। चांद के दर्शन कर अर्घ्य देकर भोजन करूंगी।' बहन का उतरा हुआ चेहरा तथा उत्तर सुनकर भाइयों ने पहाड़ी के पीछे अग्नि जला दी और छलनी की ओट से प्रकाश दिखाते हुए बहन से कहा- 'बहना चांद निकल आया है। अर्घ्य देकर भोजन कर लो।' यह सुनकर रत्नावती ने अपनी भाभियों से भी कहा- 'आओ तुम भी चन्द्रमा को अर्घ्य दे लो। भाभियों ने रत्नावती को समझाया कि उसके भाइयों ने उसके साथ छल किया है। अभी चांद नहीं निकला है, लेकिन रत्नावती ने भाइयों की बात मान ली और अर्घ्य देकर भोजन करने बैठ गई। 

              रत्नावती ने जैसे ही पहला निवाला तोड़ा तो उसमें बाल आ गया। दूसरे निवाले पर छींक तथा तीसरा निवाला लेते ही ससुराल से पति की अकुशलता के समाचार मिले। इससे रत्नावती को शंका होने लगी कि उसका व्रत भंग हो गया है। इधर मां ने बेटी को विदा करने के लिए संदूक खोला, तो शुभ मरणों के वस्त्र नहीं मिले । विदा करते हुए मां ने बेटी को वही वस्त्र एवं एक सोने का टका देते हुए कहा- 'ससुराल में सभी के पैर छूना और जो भी तुम्हें अखण्ड सौभाग्यवती का आशीष दे, उसे यहटका दे देना।
                                      रास्ते में चलते समय किसी ने भी रत्नावती को अखण्ड सौभाग्यवती का आशीर्वाद नहीं दिया। जब वह ससुराल पहुंची, तो दरवाजे पर उसकी छोटी ननद खड़ी थी। जब रत्नावती उसके पांव लगी, तो उसने उसे अखण्ड सौभाग्य का आशीर्वाद दिया। आशीष सुनकर रत्नावती ने ननद को सोने का टका दे दिया। जब वह घर के भीतर गई तो, सास ने कहा कि- 'तेरा पति धरती पर पड़ा है।' रत्नावती ने अपने मृत पति को जलाने से मना कर दिया।
          इस पर गांव वालों ने उसके लिए एक झोंपड़ी गांव से बाहर बनवाकर उसके रहने की व्यवस्था कर दी। भोजन
हमेशा उसकी ननद पहुंचाती। समय बीतता गया- मार्गशीर्ष की चौथ आई, तो चौथ माता बोली- 'करवा ले करवा ले, भाइयों की प्यारी करवा ले, लेकिन जब उसे चौथ माता दिखाई नहीं दी, तो वह बोली- 'हे माता, आपने मुझे उजाड़ा, तो आप ही मेरा उद्धार करेंगी,  आप को मेरा सुहाग देना पड़ेगा। तब उस चौथ माता ने बताया कि-
'पौष की चौथ आएगी। वह मेरे से बड़ी है। वही तुम्हारा सुहाग तुम्हें वापस देगी।
          इसी प्रकार सभी चौथ क्रमशः यही कहकर चली गईं कि आगे वाली को कहना। आसोज की चौथ आई, तो उसने बताया कि- 'तुमसे कार्तिक की चौथ नाराज है। उसी ने तुम्हारा सुहाग लिया है और वही वापस कर सकती है।
अतः जब कार्तिक की चौथ आए तो उनके पांव पकड़कर विनती करना। यह कहकर वह भी चली गई।
जब कार्तिक की चौथ आई तो वह गुस्से से बोली- 'भाइयों की प्यारी करवा ले, दिन में चांद उगावनी करवा ले, व्रत खण्डन करने वाली करवा ले।' यह सुनकर रत्नावती ने चौथ माता के पैर पकड़ लिए और विनती करने लगी- 'हे माता, मुझसे भूल हुई है, मुझे क्षमा करें, अब कभी भूल नहीं करूंगी। मेरा सुहाग आपके हाथों में है। आप ही मुझे सुहागिन करें।
तब चौथ माता ने प्रसन्न होकर आंखों से काजल, नाखूनों से मेंहदी, टीके से रोली लेकर तर्जनी अंगुली से उसके पति पर छींटा दिया। वह उठकर बैठ गया और उसकी झोंपड़ी भी महल में परिवर्तित हो गई। पति बोला- 'आज मैं बहुत सोया। तब रत्नावती ने बताया कि आप तो एक वर्ष से सो रहे थे, अब करवा चौथ की कृपा से आपको नया जीवन मिला है।
 दोनों खुशी-खुशी चौपड़ खेलने लगे, जब हमेशा की भांति ननद खाना लेकर आई, तो वहां झोंपड़ी दिखाई न देने के कारण परेशान होने लगी। तभी भाई -भाभी ने महल के ऊपर से बहन को आवाज दी।
          बहन ने जब भाई को देखा तो वह दौड़ी-दौड़ी यह शुभ सूचना लेकर मां के पास गई। मां ने जब यह शुभ समाचार सुना, तो तुरन्त सभी परिजनों के साथ गाजे-बाजे से बह को लेने आई। सास बहू के पैरों पड़ कहने लगी 'तेरे कारण मेरा बेटा मझे वापस मिला है। तब बह बोली- "मांजी हम सबको चौथ विनायक के पैरों पड़ना चाहिए. उन्हीं की कृपा से हमें सब कुछ वापस मिला है।


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