शिव है भण्डारे भरपूर करने वाले -Brahmakumaris
मनुष्य के भण्डारे खाली मिजा है और मनुष्य को कभी निर्धनता के, कभी सम्बन्धियों के कटु व्यवहार के तथा कभी सरकार द्वारा। टैक्स (Tax, कर) के काँटे भी लगते रहते हैं। काल के पंजे में तो सभी हैं ही। अत: आज की परिस्थिति में तो खास तौर पर परमात्मा शिव को अवश्य जानना चाहिए क्योंकि उनके बारे में तो यह कहावत है कि - 'शिव के भण्डारे भरपूर हैं और काल- कण्टक सब दूर हैं।' क्या आपके सुख-शान्ति के भण्डारे भरपूर हैं? आज एक विचित्र बात यह है। कि भारत के बहुत-से लोग तो यह समझे बैठे हैं कि वे शिव को भली-भाँति जानते हैं, शिव की नित्य पूजा करते हैं और बड़े उत्साह से शिवरात्रि भी मनाते हैं परन्तु प्रश्न उठता है कि लोगों ने शिव को जैसा जाना हुआ है और जिस तरह वे शिवरात्रि मनाते हैं, उससे क्या उनके सुख-शान्ति के भण्डारे भरपूर होते जा रहे हैं? और क्या काल कण्टक दूर होते जा रहे हैं? यदि नहीं तो प्रमाणित है कि उस जानकारी में कुछ कमी है।
उदाहरणार्थ, आप जानते हैं कि लोग शिव पर प्राय: अक, धतूरा इत्यादि चढ़ाते हैं। अब विचार की बात है
कि यदि इसी अक, धतूरे से शिव प्रसन्न होते तब तो अधिक यत्न की आवश्यकता ही न रहती बल्कि एक-दो रुपये का सौदा लेकर उन पर चढ़ाने की थोड़ी-सी मेहनत से जीवन के लक्ष्य की सिद्धि हो जाती। इतना पुरुषार्थ तो कोई भी कर सकता है। यदि इतने भर से ही शिव, जिन्हें ‘पाप- कटेश्वर' और 'मुक्तेश्वर' कहा गया है, पाप काट देते और मुक्ति प्रदान कर देते तब तो योग-तपस्या और ज्ञान-ध्यान को कोई भी न पूछता।
विवेक से यह बात सिद्ध है कि वहअक, धतूरा इत्यादि कुछ और ही चीजें हैं जिन्हें यदि एक बार सचमुच शिव पर चढ़ा दिया जाय तो आशुतोष अवढरदानी शिव प्रसन्न होकर मुक्ति और जीवनमुक्ति के वर दे देते हैं।
शिव और शंकर में अन्तर
प्राय: लोग 'शिव' और 'शंकर' को पर्यायवाची समझते हैं। वास्तव में शिव और शंकर एक हीके दो नाम नहीं हैं। आप देखते हैं कि मन्दिरों में एक तो अंगुष्ठ-जैसी, शरीर के आकार से रहित मूर्ति रखी रहती है जिसे शिवलिंग कहते हैं और दूसरी शारीरिक रूप वाली महादेव शंकर की होती है। कभी आपने सोचा कि ये दोनों अलग-अलग मूर्तियाँ क्यों हैं? इसका यही कारण है कि शिवलिंग तो निराकार (शरीर-रहित) ज्योतिस्वरूप, ब्रह्मलोक के निवासी ज्योतिर्लिंगम् अथवा ज्योतिर्बिन्दु सा परमात्मा शिव की प्रतिमा है और नि
दूसरी सूक्ष्म शरीर वाले, शंकरपुरी के निवासी एक देवता की मूर्ति है।
'शिव' ब्रह्मा, विष्णु और शंकर तीनों देवों के रचयिता अर्थात् त्रिमूर्ति अथवा 'देवों के देव' हैं। 'शिव' ही को 'मुक्तेश्वर' और 'पापकटेश्वर' भी कहा जाता है। शिवरात्रि सर्वमहान् आत्मा भगवान शिव के दिव्य जन्म
का उत्सव है।
भगवान के बारे में कहा गया है। कि 'वे अजन्मा हैं' परन्तु साथ ही यह भी कहा गया है कि वे जन्म लेते भी हैं। ये दोनों बातें परस्पर विरोधी मालूम होती हैं। परन्तु वास्तव में ये दोनों रहस्य हैं शत-प्रतिशत सत्य।
परमात्मा शिव को 'अजन्मा' इसलिए माना गया है कि वे माता के गर्भ से जन्म नहीं लेते, कारण कि माता के
गर्भ से जन्म उस ही का होता है जिसका कोई कर्म-बन्धन अथवा कर्मों का लेखा हो किन्तु परमात्मा शिव तो पूर्ण रूप से कर्मातीत हैं।
अब सवाल यह है कि यदि परमात्मा गर्भ से जन्म नहीं लेते तो भला कैसे लेते हैं? देखा जाये तो इसी प्रश्न का उत्तर आश्चर्यजनक है। भगवान शिव का जन्म एक अनोखा जन्म है। वह शिव-लोक से आकर एक वृद्ध मनुष्य के तन में सवारी करते हैं अर्थात् उसके तन में दिव्य प्रवेश करते हैं क्योंकि उन्हें लालन-पालन नहीं लेना होता और शिक्षा-दीक्षा नहीं लेनी होती बल्कि मनुष्यों के कल्याणार्थ ज्ञान सुनाने के लिए केवल मुखेन्द्रि की आवश्यकता होती है। जिस मनुष्य के तन में परमात्मा प्रवेश करते हैं उस मनुष्य का जन्म तो अपने माता-पिता से हुआ होता है और वह अपने कर्मों तथा पुरुषार्थ-अनुसार अपना पालन भी करता है परन्तु परमात्मा का 'जन्म' तो केवल उस मनुष्य में अपने-आप प्रवेश होने का ही नाम है। अत: भगवान अथवा शिव को 'स्वयंभू' अर्थात् 'अपना जन्म आप लेने वाला' कहा गया है।
परमपिता परमात्मा के इस प्रकार के असाधारण एवं अलौकिक जन्म की पुण्य स्मृति में ही आज तक भारत में 'शिव-रात्रि' का उत्सव मनाया जाता है और उन्हें सदाशिव' कहा जाता है क्योंकि पूर्वकल्प में जबसारी सृष्टि माया-रात्रि में अज्ञान-निद्रा में सोई पड़ी थी और दुःख एवं अशान्ति से पीड़ित थी तब सदा जागती-ज्योति और कल्याण-युक्त परमपिता परमात्मा शिव ने प्रजापिता ब्रह्मा के तन में दिव्य जन्म लेकर सभी मनुष्यात्माओं को गीता-ज्ञान सुनाया था और उन्हें पूर्ण पवित्रता, सुख एवं शान्ति का वर्सा दिया था और इस प्रकार उनका कल्याण किया था। उन्होंने कलियुगी तमोगुणी मनुष्य- सृष्टि को सतयुगी, सतोप्रधान दैवी सृष्टि में परिवर्तित किया और अधर्म का विनाश कराके मनुष्यात्माओं को मुक्ति एवं जीवनमुक्ति के वरदान दिये थे। इसी कारण आज तक भारतवासी परमात्मा शिव की पूजा भी करते हैं। अत: याद रहे कि परमात्मा का 'जन्म' तो 'परकाया प्रवेश' ही का दूसरा नाम है और यही कारण है कि त्रिलोकीनाथ, सर्वशक्तिमान, ज्ञान के सागर परमात्मा के अवतरित होने पर जनसाधारण उन्हें पहचान ही नहीं पातेक्योंकि भगवान जिस शरीर में अवतरित होते हैं, वह शरीर तो अन्य आत्मा का होता है और उसके कर्मों के अनुसार साधारण होता है और जन-साधारण चर्म-चक्षुओं से उस साधारण व्यक्ति को देख कर छले- से जाते हैं। यदि भगवान कोई अपना शरीर' लेते तो वह इतना तेजोमय, इतना सुन्दर, आकर्षणकारी, इतना दिव्य होता कि कोई भी व्यक्ति उन्हें पहचानने से न चूकता परन्तु कर्मातीत होने के कारण परमात्मा शरीर तो ले ही नहीं सकते क्योंकि उन्हें प्रारब्ध तो भोगनी ही नहीं होती।
शिव ने क्या किया? प्रश्न उठ सकता है कि परमात्म शिव को क्यों याद करें? उन्होंने ऐसा क्या महान कार्य किया है कि आज तक उनकी महिमा, उनका गायन और पूजन होता है और उनका जन्मोत्सव मनाया जाता है? हम बता चुके हैं कि मनुष्यात्माओं का कल्याण करने के कारण परमात्मा के 'शिव' नाम का गायन हुआ। आप पूछेगे कि क्या कल्याण किया? आज मनुष्य समझते हैं कि किसी को अन्न, धन, वस्त्र इत्यादि देना अथवा थोड़े समय के लिए किसी को आय का साधन इत्यादि प्राप्त करा देना ही कल्याण करना है।
भारत सरकार ने तथा सामान्य जनता ने इस प्रकार के कई केन्द्र 'कल्याण केन्द्रों' के नाम से पर खोले हुए हैं। परन्तु आप सोचिये कि के जब तक मनुष्यात्माओं में जागृति नहीं ही आयेगी, जब तक उनके कर्मों में पवित्रता नहीं आयेगी तब तक उनके
दुःखों का कोई न कोई कारण तो व बना ही रहेगा। अतः परमपिता परमात्मा, जो कि कर्मों की गुह्यगति को जानने वाले हैं, मनुष्य का कल्याण इस प्रकार करते हैं कि वह ईश्वरीय विद्या द्वारा उनके कर्मों में श्रेष्ठता
लाते हैं। दो चीजों की आवश्यकता है। कर्मों को श्रेष्ठ बनाने के लिए दो चीज़ों की आवश्यकता है - एक तो ज्ञान की और दूसरे योग की। कौन-से कर्म करने चाहिएँ, कौन-से नहीं चाहिएँ, आत्मा क्या है, उसे अपने स्वरूप में कैसे स्थित होना चाहिए इत्यादि-इत्यादि विषयों को ठीक- ठीक जानना ही 'ज्ञान' कहलाता है।
केवल ज्ञान से ही मनुष्य पवित्र नहीं बन सकता क्योंकि जब तक मनुष्य सर्वशक्तिमान परमपिता परमात्मा शिव से शक्ति न ले तब तक वह अपने पूर्वकालीन संस्कारों को बदल नहीं सकता, पूर्वकाल में किये विकर्मों को दग्ध नहीं कर सकता और पूर्ण कल्याण अथवा आनन्द को प्राप्त नहीं कर सकता। परमपिता परमात्मा से आध्यात्मिक शक्ति, संस्कारों की पवित्रता, आनन्द इत्यादि की प्राप्ति के लिए उनसे सम्बन्ध स्थापित करनाही 'योग' है।दो वरदान परमात्मा शिव ने स्वयं ही - वास्तविक योग सिखा कर मनुष्य को "माया जीते जगजीत" बनाया।
योग- द्वारा ही उन्होंने मनुष्यों के पाप-बन्धन- काटे और योग द्वारा ही पावन किया।- इस कारण ही वह ‘पापकटेश्वर' अथवा 'पतित-पावन' कहलाते हैं। ज्ञान-रूपी सोमरस पिलाने के कारण ही उनको ‘सोमनाथ' भी कहते हैं। ये दोनों वरदान परमात्मा शिव ही देते हैं। अक और धतूरा चढ़ाने का अर्थ इन रहस्यों को जानने पर ही शिवरात्रि को वास्तविक रीति में मनाया जा सकता है और मुक्ति तथा जीवनमुक्ति प्राप्त की जा सकती है। तब ही मनुष्य समझ सकता है कि हमें शिव पर अक और धतूरा नहीं चढ़ाना बल्कि ये पदार्थ तो हमारे विषयों अथवा विकारों के प्रतीक हैं। और हमें उन विकारों ही को शिव पर चढ़ाना है, तभी हमारी मुक्ति होगी। हमें शिवरात्रि की एक रात को खाना- पीना बन्द करके ही व्रत नहीं रखना।
सतयुग के आरम्भ के सारे संगम काल का नाम है इसलिए इस सारे काल में हमें आत्मा का जागरण करना है और ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना है। यदि हम ऐसा न करके केवल एक रात्रि पवित्र रहने के बाद काम रूपी विष का सेवन करते हैं तो मानो हम केवल एक रात्रि ही 'शिवरात्रि' मनाकर फिर नित्य 'विषरात्रि' मनाते हैं, हम केवल एक रात्रि ही 'शिव संकल्प' और फिर नित्य 'विष संकल्प' करते हैं। इससे हमारे जीवन का कल्याण नहीं हो सकता।
हमें तो वर्तमान संगमयुग को शिवरात्रि' समझ कर सतयुग रूपी दिन चढ़ने तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिए और आत्मिक अर्थ में 'जागते रहना चाहिए। इस प्रकार शिव को जानने से सुख-शान्ति के भण्डारे भरपर
और काल-कण्टक सब दूर हो जायेंगे।
मनुष्य के भण्डारे खाली मिजा है और मनुष्य को कभी निर्धनता के, कभी सम्बन्धियों के कटु व्यवहार के तथा कभी सरकार द्वारा। टैक्स (Tax, कर) के काँटे भी लगते रहते हैं। काल के पंजे में तो सभी हैं ही। अत: आज की परिस्थिति में तो खास तौर पर परमात्मा शिव को अवश्य जानना चाहिए क्योंकि उनके बारे में तो यह कहावत है कि - 'शिव के भण्डारे भरपूर हैं और काल- कण्टक सब दूर हैं।' क्या आपके सुख-शान्ति के भण्डारे भरपूर हैं? आज एक विचित्र बात यह है। कि भारत के बहुत-से लोग तो यह समझे बैठे हैं कि वे शिव को भली-भाँति जानते हैं, शिव की नित्य पूजा करते हैं और बड़े उत्साह से शिवरात्रि भी मनाते हैं परन्तु प्रश्न उठता है कि लोगों ने शिव को जैसा जाना हुआ है और जिस तरह वे शिवरात्रि मनाते हैं, उससे क्या उनके सुख-शान्ति के भण्डारे भरपूर होते जा रहे हैं? और क्या काल कण्टक दूर होते जा रहे हैं? यदि नहीं तो प्रमाणित है कि उस जानकारी में कुछ कमी है।
उदाहरणार्थ, आप जानते हैं कि लोग शिव पर प्राय: अक, धतूरा इत्यादि चढ़ाते हैं। अब विचार की बात है
कि यदि इसी अक, धतूरे से शिव प्रसन्न होते तब तो अधिक यत्न की आवश्यकता ही न रहती बल्कि एक-दो रुपये का सौदा लेकर उन पर चढ़ाने की थोड़ी-सी मेहनत से जीवन के लक्ष्य की सिद्धि हो जाती। इतना पुरुषार्थ तो कोई भी कर सकता है। यदि इतने भर से ही शिव, जिन्हें ‘पाप- कटेश्वर' और 'मुक्तेश्वर' कहा गया है, पाप काट देते और मुक्ति प्रदान कर देते तब तो योग-तपस्या और ज्ञान-ध्यान को कोई भी न पूछता।
विवेक से यह बात सिद्ध है कि वहअक, धतूरा इत्यादि कुछ और ही चीजें हैं जिन्हें यदि एक बार सचमुच शिव पर चढ़ा दिया जाय तो आशुतोष अवढरदानी शिव प्रसन्न होकर मुक्ति और जीवनमुक्ति के वर दे देते हैं।
शिव और शंकर में अन्तर
प्राय: लोग 'शिव' और 'शंकर' को पर्यायवाची समझते हैं। वास्तव में शिव और शंकर एक हीके दो नाम नहीं हैं। आप देखते हैं कि मन्दिरों में एक तो अंगुष्ठ-जैसी, शरीर के आकार से रहित मूर्ति रखी रहती है जिसे शिवलिंग कहते हैं और दूसरी शारीरिक रूप वाली महादेव शंकर की होती है। कभी आपने सोचा कि ये दोनों अलग-अलग मूर्तियाँ क्यों हैं? इसका यही कारण है कि शिवलिंग तो निराकार (शरीर-रहित) ज्योतिस्वरूप, ब्रह्मलोक के निवासी ज्योतिर्लिंगम् अथवा ज्योतिर्बिन्दु सा परमात्मा शिव की प्रतिमा है और नि
दूसरी सूक्ष्म शरीर वाले, शंकरपुरी के निवासी एक देवता की मूर्ति है।
'शिव' ब्रह्मा, विष्णु और शंकर तीनों देवों के रचयिता अर्थात् त्रिमूर्ति अथवा 'देवों के देव' हैं। 'शिव' ही को 'मुक्तेश्वर' और 'पापकटेश्वर' भी कहा जाता है। शिवरात्रि सर्वमहान् आत्मा भगवान शिव के दिव्य जन्म
का उत्सव है।
भगवान के बारे में कहा गया है। कि 'वे अजन्मा हैं' परन्तु साथ ही यह भी कहा गया है कि वे जन्म लेते भी हैं। ये दोनों बातें परस्पर विरोधी मालूम होती हैं। परन्तु वास्तव में ये दोनों रहस्य हैं शत-प्रतिशत सत्य।
परमात्मा शिव को 'अजन्मा' इसलिए माना गया है कि वे माता के गर्भ से जन्म नहीं लेते, कारण कि माता के
गर्भ से जन्म उस ही का होता है जिसका कोई कर्म-बन्धन अथवा कर्मों का लेखा हो किन्तु परमात्मा शिव तो पूर्ण रूप से कर्मातीत हैं।
अब सवाल यह है कि यदि परमात्मा गर्भ से जन्म नहीं लेते तो भला कैसे लेते हैं? देखा जाये तो इसी प्रश्न का उत्तर आश्चर्यजनक है। भगवान शिव का जन्म एक अनोखा जन्म है। वह शिव-लोक से आकर एक वृद्ध मनुष्य के तन में सवारी करते हैं अर्थात् उसके तन में दिव्य प्रवेश करते हैं क्योंकि उन्हें लालन-पालन नहीं लेना होता और शिक्षा-दीक्षा नहीं लेनी होती बल्कि मनुष्यों के कल्याणार्थ ज्ञान सुनाने के लिए केवल मुखेन्द्रि की आवश्यकता होती है। जिस मनुष्य के तन में परमात्मा प्रवेश करते हैं उस मनुष्य का जन्म तो अपने माता-पिता से हुआ होता है और वह अपने कर्मों तथा पुरुषार्थ-अनुसार अपना पालन भी करता है परन्तु परमात्मा का 'जन्म' तो केवल उस मनुष्य में अपने-आप प्रवेश होने का ही नाम है। अत: भगवान अथवा शिव को 'स्वयंभू' अर्थात् 'अपना जन्म आप लेने वाला' कहा गया है।
परमपिता परमात्मा के इस प्रकार के असाधारण एवं अलौकिक जन्म की पुण्य स्मृति में ही आज तक भारत में 'शिव-रात्रि' का उत्सव मनाया जाता है और उन्हें सदाशिव' कहा जाता है क्योंकि पूर्वकल्प में जबसारी सृष्टि माया-रात्रि में अज्ञान-निद्रा में सोई पड़ी थी और दुःख एवं अशान्ति से पीड़ित थी तब सदा जागती-ज्योति और कल्याण-युक्त परमपिता परमात्मा शिव ने प्रजापिता ब्रह्मा के तन में दिव्य जन्म लेकर सभी मनुष्यात्माओं को गीता-ज्ञान सुनाया था और उन्हें पूर्ण पवित्रता, सुख एवं शान्ति का वर्सा दिया था और इस प्रकार उनका कल्याण किया था। उन्होंने कलियुगी तमोगुणी मनुष्य- सृष्टि को सतयुगी, सतोप्रधान दैवी सृष्टि में परिवर्तित किया और अधर्म का विनाश कराके मनुष्यात्माओं को मुक्ति एवं जीवनमुक्ति के वरदान दिये थे। इसी कारण आज तक भारतवासी परमात्मा शिव की पूजा भी करते हैं। अत: याद रहे कि परमात्मा का 'जन्म' तो 'परकाया प्रवेश' ही का दूसरा नाम है और यही कारण है कि त्रिलोकीनाथ, सर्वशक्तिमान, ज्ञान के सागर परमात्मा के अवतरित होने पर जनसाधारण उन्हें पहचान ही नहीं पातेक्योंकि भगवान जिस शरीर में अवतरित होते हैं, वह शरीर तो अन्य आत्मा का होता है और उसके कर्मों के अनुसार साधारण होता है और जन-साधारण चर्म-चक्षुओं से उस साधारण व्यक्ति को देख कर छले- से जाते हैं। यदि भगवान कोई अपना शरीर' लेते तो वह इतना तेजोमय, इतना सुन्दर, आकर्षणकारी, इतना दिव्य होता कि कोई भी व्यक्ति उन्हें पहचानने से न चूकता परन्तु कर्मातीत होने के कारण परमात्मा शरीर तो ले ही नहीं सकते क्योंकि उन्हें प्रारब्ध तो भोगनी ही नहीं होती।
शिव ने क्या किया? प्रश्न उठ सकता है कि परमात्म शिव को क्यों याद करें? उन्होंने ऐसा क्या महान कार्य किया है कि आज तक उनकी महिमा, उनका गायन और पूजन होता है और उनका जन्मोत्सव मनाया जाता है? हम बता चुके हैं कि मनुष्यात्माओं का कल्याण करने के कारण परमात्मा के 'शिव' नाम का गायन हुआ। आप पूछेगे कि क्या कल्याण किया? आज मनुष्य समझते हैं कि किसी को अन्न, धन, वस्त्र इत्यादि देना अथवा थोड़े समय के लिए किसी को आय का साधन इत्यादि प्राप्त करा देना ही कल्याण करना है।
भारत सरकार ने तथा सामान्य जनता ने इस प्रकार के कई केन्द्र 'कल्याण केन्द्रों' के नाम से पर खोले हुए हैं। परन्तु आप सोचिये कि के जब तक मनुष्यात्माओं में जागृति नहीं ही आयेगी, जब तक उनके कर्मों में पवित्रता नहीं आयेगी तब तक उनके
दुःखों का कोई न कोई कारण तो व बना ही रहेगा। अतः परमपिता परमात्मा, जो कि कर्मों की गुह्यगति को जानने वाले हैं, मनुष्य का कल्याण इस प्रकार करते हैं कि वह ईश्वरीय विद्या द्वारा उनके कर्मों में श्रेष्ठता
लाते हैं। दो चीजों की आवश्यकता है। कर्मों को श्रेष्ठ बनाने के लिए दो चीज़ों की आवश्यकता है - एक तो ज्ञान की और दूसरे योग की। कौन-से कर्म करने चाहिएँ, कौन-से नहीं चाहिएँ, आत्मा क्या है, उसे अपने स्वरूप में कैसे स्थित होना चाहिए इत्यादि-इत्यादि विषयों को ठीक- ठीक जानना ही 'ज्ञान' कहलाता है।
केवल ज्ञान से ही मनुष्य पवित्र नहीं बन सकता क्योंकि जब तक मनुष्य सर्वशक्तिमान परमपिता परमात्मा शिव से शक्ति न ले तब तक वह अपने पूर्वकालीन संस्कारों को बदल नहीं सकता, पूर्वकाल में किये विकर्मों को दग्ध नहीं कर सकता और पूर्ण कल्याण अथवा आनन्द को प्राप्त नहीं कर सकता। परमपिता परमात्मा से आध्यात्मिक शक्ति, संस्कारों की पवित्रता, आनन्द इत्यादि की प्राप्ति के लिए उनसे सम्बन्ध स्थापित करनाही 'योग' है।दो वरदान परमात्मा शिव ने स्वयं ही - वास्तविक योग सिखा कर मनुष्य को "माया जीते जगजीत" बनाया।
योग- द्वारा ही उन्होंने मनुष्यों के पाप-बन्धन- काटे और योग द्वारा ही पावन किया।- इस कारण ही वह ‘पापकटेश्वर' अथवा 'पतित-पावन' कहलाते हैं। ज्ञान-रूपी सोमरस पिलाने के कारण ही उनको ‘सोमनाथ' भी कहते हैं। ये दोनों वरदान परमात्मा शिव ही देते हैं। अक और धतूरा चढ़ाने का अर्थ इन रहस्यों को जानने पर ही शिवरात्रि को वास्तविक रीति में मनाया जा सकता है और मुक्ति तथा जीवनमुक्ति प्राप्त की जा सकती है। तब ही मनुष्य समझ सकता है कि हमें शिव पर अक और धतूरा नहीं चढ़ाना बल्कि ये पदार्थ तो हमारे विषयों अथवा विकारों के प्रतीक हैं। और हमें उन विकारों ही को शिव पर चढ़ाना है, तभी हमारी मुक्ति होगी। हमें शिवरात्रि की एक रात को खाना- पीना बन्द करके ही व्रत नहीं रखना।
सतयुग के आरम्भ के सारे संगम काल का नाम है इसलिए इस सारे काल में हमें आत्मा का जागरण करना है और ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना है। यदि हम ऐसा न करके केवल एक रात्रि पवित्र रहने के बाद काम रूपी विष का सेवन करते हैं तो मानो हम केवल एक रात्रि ही 'शिवरात्रि' मनाकर फिर नित्य 'विषरात्रि' मनाते हैं, हम केवल एक रात्रि ही 'शिव संकल्प' और फिर नित्य 'विष संकल्प' करते हैं। इससे हमारे जीवन का कल्याण नहीं हो सकता।
हमें तो वर्तमान संगमयुग को शिवरात्रि' समझ कर सतयुग रूपी दिन चढ़ने तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिए और आत्मिक अर्थ में 'जागते रहना चाहिए। इस प्रकार शिव को जानने से सुख-शान्ति के भण्डारे भरपर
और काल-कण्टक सब दूर हो जायेंगे।
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